मैं खेलूं कहाँ?
मैं खुद हूं कहाँ?
मैं गाऊं कहाँ?
मैं किसके साथ बात करूं? बोलना हो तो मां को बुरा लगता है।
खेलता हूं तो पिताजी खींचते हैं। कूदता हूँ हो तो बैठ जाने को कहते हैं।
गाता हूं तो चुप रहने को कहते हैं।
अब आप कहिए मैं कहाँ जाऊं, क्या करूँ?
ऐसे अनगिनत प्रश्न मन मे उठते है जब हम गिजुभाई बधेका द्वारा लिखित दिवास्वप्न को पढ़ते है।
यह पुस्तक शिक्षा में नए प्रयोगों की शुरुआत और यथास्थिति को तोड़ने के सफ़र की कहानी कहती है। यह बच्चों की जिज्ञासा और उनके आस-पास के परिवेश से उनको जोड़कर देखती है। कहानी के माध्यम से भाषा सिखाने और बच्चों से रिश्ता बनाने को एक सहज और सक्रिय प्रक्रिया के रूप में देखती है, जिसमें बच्चों की अधिकतम भागीदारी सुनिश्चित हो सकती है।
लेखक का मानना है कि कहानी और खेल को मैं आधी शिक्षा के रूप में देखता हूं। क्योंकि इससे बच्चे को बेहतर जीवन व्यवहार सीखने और सोचने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। बच्चे पढ़ाई की तरफ रुख करते हैं। यह बात भी हमें दिखाई पड़ती है। नए काम की शुरूआत में गलतियों की संभावना से हम इंकार नहीं कर सकते। लेकिन हमें गलतियों से तेजी से सीखना पड़ता है क्योंकि लोग हम पर सवालों की बौछार करने को तैयार बैठे होते हैं। जो भी हमारे प्रभाव का दायरा तय हो हमें वहां से चीजों को बेहतर करने का प्रयास करना चाहिए।
गिजुभाई बधेका समुदाय व माता-पिता के सहयोग को बच्चे के विकास में सहयोग के लिए जरूरी मानते हैं। वे शिक्षा को यथास्थिति को बदलने का माध्यम मानते हैं। वे मानते हैं कि भले इसमें वक्त लग रहा हो लेकिन हमें बहुत धैर्य के साथ अपना काम करते रहना चाहिए। पहले दिन शांति के अभ्यास का प्रयास, बच्चों की बेचैनी देखकर उनको छुट्टी दे देना। दूसरे दिन कहानी के माध्यम से उनको अपनी बात सुनने के लिए तैयार करना। कहानी बीच में रोककर बच्चों को बातचीत करने के लिए राजी करना। कहानी के माध्यम से क्लॉस में नियम बनाने की परंपरा शुरू करना। बच्चों से उनकी सहमति लेना आदि बातें गिजूभाई की गहरी समझ की तरफ इशारा करती हैं। वे पूरी प्रक्रिया को गौर से देखते हैं कि कहां चूक हो गई और उसे सुधार करते हैं।
अगर शिक्षक के नजरिए से बात करें तो गिजुभाई अधिकारियों के दबाव को समझते हैं। कोर्स को पूरा करने में शुरूआती स्तर पर हो रही देरी को भी स्वीकार करते है। समुदाय को समझाने की कोशिश करते हैं। लेकिन भाषण देना सही नही है, यह बात भी उन्हे अंत में पता चलती है। बच्चों के व्यवहार को वे काफी तार्किक ढंग से समझते हुए शांत रहते हैं। एक शिक्षक के बतौर यह सारे अनुभव हमें मानसिक स्तर पर मजबूत बनाते हैं और वर्तमान चुनौतियों का सामना करने का हौसला भी देते हैं।
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